Sunday, August 18, 2024

Yogi (जोगी)

This poem was recited to me many years back by a family elder, who told that they used to have this poem in their books in school. So it must be from 1940-50 era. Title of the poem is 'Yogi' and is written in devnagri script. One is sure that all readers will like it for its simplicity and message therein.  

जोगी

कल सुबह मतलए (उगता) ताबां से जब आलम बुक्काए नूर् हुआ,

सब चांद सितारे मांद हुए खुरशीद (सूर्य) का नूर जुहूर हुआ।

मस्ताना हवायें गुलशन थीं जानाना आदायें गुलबन (फूल) थी,

हर वादी वादी ऐमन (घाटी) थी हर कोह (पर्वत) पे नूर समाया था।

जब वादे (हवा) सबा (सुबह) मिजराब बनी हर शाख मिसाले रबाब बनी,

शमशाद ओ चिनार सितार बने हर सरो सुमन तम्बूर (बैंड) हुआ।

सब तायर मिल कर गाने लगे इरफान (भक्ति) की तानें उडाने लगे,

अषजार (पेड) भी वजद में आने लगे दिलकश वो समये तम्बूर हुआ।

सबजे (हरियाली) ने बसात (कालीन) बिछायी थी और बजमे (मिलन) सरूर (आनन्द) समाई थी,

बन में गुलशन में आङ्गन में फर्शे सञ्जाब (कपडा) वसमूल हुआ।

था दिलकश मञ्जर (दृष्य) दश्ता (भूलना) जबल और चाल सबा (सुबह) की मस्ताना,

इस हाल में एक पहाडी पर जा निकला ॑नाजर॑ दीवाना।

चीलों ने झंडे गाडे थे पर्वत पर छौनी छाइ थी,

थे खेमे डेरे बादल के कोरे ने कनात बिछाइ थी।

जहां बर्फ के तोंदे गलते थे चांदी के फव्वारे चलते थे,

चशमे सीमात (मरकरी/ पारद) उगलते थे नालों ने धूम मचाई थी।

यहां कुल्लाए कोह रहता था इक मस्त कलन्दर वैरागी,

थी राख जटा में योगी के और अङ्ग विभूत समायी थी।

था राख का योगी का बिस्तर और राख का पीराहन (कपडा) तन पर,

थी एक लङ्गोटी जेवे (सजावट) कमर जो घुटनों तक लटकाई थी।

सब खल्के (दुनिया) खुदा से बेगाना वो मस्त कलन्दर दीवाना,

बैठा था जोगी मस्ताना आंखों में मस्ती छाई थी।

जोगी से आंखें चार हुई और झुक के मैने सलाम किया,

तब आंख उठा कर नाजर से यूं बनवासी ने कलाम किया।

क्यों बाबा नाहक जोगी को तुम किस लिये आ के सताते हो,

हम पंख पखेरू बनवासी तुम जाल में आन फंसाते हो।

हम हिरसों (इच्छा) हवा को छोड चुके इस नगरी से मुंह मोड चुके,

हम जो जञ्जीरें तोड चुके तुम लाके वही पहनाते हो।

तुम पूजा करते हो धन की हम सेवा करते हैं साजन की,

हम जोत जगाते हैं मन की तुम आके उसे बुझाते हो।

संसार से यह मुख फेरा है मन में साजन का डेरा है,

यहां आंख लगी है प्रियतम से तुम किस से आंख लडाते हो।

उस मस्त कलन्दर जोगी ने जब नाजर को ये आताब (सम्बोधन) किया,

कुछ देर तो हम खामोश रहे फिर जोगी से यह मताब (बात) किया।

हम हैं परदेसी सीलानी (यात्री) मत नाहक तैश मे आ जोगी,

हम आती थे तेरे दर्शन को चितवन पर मैल न ला जोगी।

आबादी से मुंह फेरा क्यों पर्बत पे किया डेरा क्यूं,

हर मैह्फिल में हर मंजिल में हर दिल में है नूरे खुदा जोगी।

क्या मस्जिद में क्या मन्दिर में सब जल्वा है वो अल्लाह का,

पर्बत में नगर में सागर में हर उत्तरा है हरजा (सब जगह) जोगी।

जी शहर में खूब बहलता है वहां हुसन पे इशक मचलता है,

वहां प्रेम का सागर चलता है चल दिल की प्यास भुजा जोगी।

वा दिल का गुञ्जा खिलता है हर रंग पे मौमन (सभ्य पुरुष) मिलता है,

चल शहर में शंख बजा जोगी चल बाजार में धूनी रमा जोगी।

जोगी का जवाबः

इन चिकनी चुपडी बातों से मत जोगी को फुसला बाबा,

जो आग बुझाई जतनों से फिर उस पर न तेल गिरा बाबा।

है शहरों में गुलो शोर बहुत और हिरसो (लालच) हवा का जोर बहुत,

बसते हैं नगर मे चोर बहुत साधु की है बन मे जा बाबा।

है शहर मे शोरश नफ्सानी (दुनियावी) जङ्गल में है जलवा रूहानी,

है नगरी डगरी कसरत की बन वहदत का दरिया बाबा।

हम जङ्गल् के फल खाते हैं चशमों से प्यास बुझाते हैं,

राजा के न द्वारे जाते हैं परजा की ना परवाह बाबा।

सिर पर आकाश का मण्डल है धरती पे सुहानी मख्मल है,

दिन को सूरज की महफिल है शब को तारों की सभा बाबा।

जब झूम के यहां घन (बादल) आते हैं मस्ती का रङ्ग जमाते हैं,

चशमे तम्बूल (तबला) बजाती हैं गाती है मलहार वन बाबा।

यहां पंछी मिल कर गाते हैं प्रीतम का सन्देश सुनाते हैं॑

या रूप अनूप दिखाते हैं फल फूल और बरग गया बाबा।

है पेट का हर ध्यान तुम्हें और याद नहीं भगवान तुम्हें,

सिल पत्थर ईंट मकान तुम्हें देते हैं सखी से छुडा बाबा।

तन मन को धन में लगाते हो प्रीतम को दिल् से भुलाते हो,

माटी मे लाल गंवाते हो तुम बन्दे हिलसो हवा (ईच्छा रूपी हवा) बाबा।

धन दौलत आनी जानी है यह दुनिया राम कहानी है,

यह आलम (सृष्टि) फानी फानी है बाकी है जाते खुदा बाबा।

----------------------------ॐ---------------------------------

No comments:

Post a Comment