Wednesday, December 28, 2022

Narad

 

ब्रह्मा ने चारों ब्रह्मचारी पुत्र सनकादि को पुत्रोत्पत्ति तथा सृष्टि सृजन के लिये तप करने भेजा, पर ब्रह्मा जी ने नारद को विवाह करने के लिये कहा और पुत्र उत्पत्ति की आज्ञा दी तो वो बहुत दुखी हुए। उन्होने अपने पिता से कहा कि आपने अन्य भाइयों को तो तप मे लगा दिया और मुझे विषय भोग मे लगा रहे हैं, ऐसा क्यों? यह सुन कर ब्रह्मा जी बहुत कुपित हुए और शाप दिया कि तुम अत्मज्ञान विहीन हो जाओ। तुम गन्धर्व योनि में जन्म लो, ५० रम्य नारियों के पती तथा उङ्के क्रीडामृग होकर् अवस्थान करो। इसके बाद तुम दासी पुत्र होकर जन्म लोगे तथा श्री हरी की कृपा से मेरे पुत्र हो कर पुनः मुझसे ब्रह्मज्ञान लाभ करोगे। नारद रुदन करने लगे कि मैं हरिभक्ति विमुक्त ना हूं, चाहे जहां कहिं भी जन्म लूं।

पूर्व काल में एक परम ऐश्वर्यवान हरिभक्त गन्धर्व राज थे परन्तु उनके कोई सन्तान न थी। श्री हरी कि भक्ति कर उन्होने एक परम ऐश्वर्यवान पुत्र का वर प्राप्त किया। यथा समय पुत्र रत्न हुआ जिसका नाम वशिष्ठदेव ने उपबर्हण रखा। समय आने पर उनका विवाह गन्धर्वराज चित्ररथ की कमलनयनी ५० कन्याओं से हुआ। दीर्घ काल तक उन्होने राज्या का कार्य भार वहन किया। एक बार ब्रह्मा कि सभा में उपबर्हण को श्री हरी का लीला गान करने हेतु बुलाया। उनके संगीत से सभी मुग्ध हो गये। तभी स्वर्ग अप्सरा रम्भा को देख कर उनका चित विक्षिप्त हो गया। उन्होने संगीत बन्द कर दिया जिस से ब्रह्मा जी क्रोधित हो गये। उन्होने शाप दिया कि तुम गन्धर्व योनि त्याग कर शुद्र योनि मे जन्म लोगे। उन्होने वशिष्ठ से योग विद्या ली थी इस लिये अपना शरीर त्याग दिया।

जब उनकी पत्नियों ने उनकी मृत देह देखी तो सब विलाप करने लगीं। पति के शरीर को वक्ष पर रख कर मूर्छित हो गयीं। श्री हरी की स्तुती कर पुनर्जीवन की याचना करने लगीं। पत्नी मालावति पुनः मूर्छित हो गयीं, इस तरह बहुत दिन शरीर को ले कर बैठी रहीं। पुनः श्री हरी की स्तुति की परन्तु उन्हे जीवित होता न देख क्रोधित हो गयीं।

मृत शरीर को ले कर कौशिकी नदी के तीर पर आयीं, वहां सभी देव गण को शाप देने हेतु उद्यत हुईं। तब सभी देवता भग्वान विष्णु समक्ष गये। तब भगवान एक ब्रह्मण के वेश मे मालावती के सामने उपस्थित हुए। मालावती ने ब्रह्मण बालक की अर्चना कर पति के पुनर्जीवन के लिये कहा। उसने मालावति को नाना प्रकार से उपदेश किया जिससे उसे कुछ शान्ति का अनुभव हुआ। परन्तु उसने अपने पती के जीवन दान की इच्छा ना छोडी। अन्ततः ब्रह्मण ने अपने कमण्डल से जल ले कर मृत देह पर डाला जिससे शव सुन्दर शरीर युक्त हो गया। तब सभी देवताओं ने अपने अपने सामर्थय से उसके पति को पुनः जीवित किया। मालावती ने श्री हरी कि स्तुती की। चारों ओर से पुष्प वर्षा होने लगी तथा मालवति अपने पति संग गन्धर्व नगरी लौट गयी। राजा ने इस् प्रकार दीर्घकाल तक अपनी पत्नियों सङ्ग सुख भोगा। अन्त मे योग बल से शरीर त्याग् दिया तथा मालावती ने भी पुष्कर में शरीर त्याग दिया।

कन्यकुब्ज में गोपराज द्रुमिल अपनी पत्नी कलावती के साथ रहता था। स्वामि के दोष कारण उनके कोई सन्तान नहीं थी। दोनो बहुत दुखी मन से रहने लगे। स्वामी कि आज्ञा से अच्छी वेष भूषा डाल वो कश्यप वंशी नरद मुनि के पास गई। मुनि ध्यान मे थे, इस लिये वो वहीं बैठ गई। मुनि का जब ध्यान टूटा तो उसके आने का कारण पूछा, तब उस ने भयभीत हो कर उनके समागम द्वारा पुत्र लाभ के लिये कहा। उसकी बात सुन कर वे कुपित हो गये और कलावती डर से वहीं स्तम्भित हो गयी। उधर से स्वर्ग अप्सरा मेनका जा रही थी, उसे देख कर मुनि का चित विक्षिप्त हो गया एक पत्ते पर वीर्यपात हो गया। कलावती ने उस अमोघ वीर्य को सादर उठा पान कर लिया। मुनि को प्रणाम कर वो घर चली गयी। घर आ कर पती को सारा वृतांत सुनाया तो द्रुमिल बहुत अनन्दित हुआ बोला अब तुम्हारे यहां एक वैष्णव पुत्र पैदा होगा। तुम अभी से ब्रह्मण के घर मे वास करो तथा मैं तप के लिये हिमालय जा रहा हूं। अपनी सभी सम्पदा ब्रह्मणो को दान कर वो बद्रिक आश्रम चला गया।

कलावती पतिविरह से कातर हो रुदन करने लगी और चिता जला कर अग्नि मे जलने के लिये उद्यत होने लगी। तभी एक धनी ब्रह्मण ने आकर उसे मां कह सम्बोधित किया और देह त्याग से रोका। उसे वो सादर अपने घर ले गया तथा उसकी रक्षा करने लगा। यथा समय कलावती ने एक परम् सुन्दर, ब्रह्मतेज से जाज्वल्यमान पद्म एवम चक्र चिन्ह युक्त बालक को जन्म दिया। ये ब्रह्मा के मानस पुत्र नारद ही थे क्योंकी की वे अब मुनि नरद के वीर्य से पैदा हुए थे।  नारं जलं ददादि॑, जो जल दे वो नारद। (ब्रह्मवैवर्त पुराण, १/२१/७) ब्रह्मण दम्पति के यत्न और मातृ स्नेह से नारद बडे होने लगे। शैशव काल से ही भक्ति तथा ज्ञान अङ्कुरण के लक्षण दिखने लगे। जब वे पांच वर्ष के हुए तो कई बाल ब्रह्मण घर आये जिनका ब्रह्मण दम्पति ने सत्कार किया। उन्होने ब्रह्मण भोजन का प्रसाद बालक को खिलाया तथा गृहस्वामि कि अनुमती ले कर दोनो अपने आश्रम वापिस चले गये। ब्रह्म वहां कथा करते, माता उनकी सेवा करती तथा बालक श्रवण करता। इस तरह श्री हरी की कथा में बालक कि भक्ति हो गयी, मुनियों ने गुह्यतम ज्ञान उपदेश दिया। उन्होने वो स्थान त्याग दिया। मां का स्नेह उन पर बढने लगा जिसे वो विघ्न मानने लगे। एक दिन माता को सर्प ने डस लिय जिस से उङ्का देहान्त हो गया। मां का सर्व कार्य कर वो हिमालय तपस्या के लिये चल पडे। पीपल वृक्ष के नीचे वो ध्यान मग्न हो गये। प्रभु का दर्शन भीतर प्राप्त हआ पर जब नेत्र खोले तो कुच् भी नहीं दिखा जिस से बहुत उदास हुए। अकाशवाणी हुई कि इस जन्म में मेरा दर्शन नहीं होगा क्योकि अभी भी वासना खत्म नही हुई है। साधना और सत्सङ्ग के प्रभाव से, देह त्याग कर तुम मुझ में ही लीन हो जाओगे।  यह सुन कर नारद पुल्कित हो गये और प्रभु को पुनः पुनः प्रणाम कर साधना भक्ति मे लीन हो गये।……………ॐ!.....from 'Sansmaran', Shri Purnanand Ajapa Yoga Sansthaan.

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