Thursday, September 15, 2022

Karm Tyaag

 

अनाश्रिताः कर्मफलम् कार्यम् कर्म करोति यः,

स संन्यासी च योगी च न निरग्निनं चाक्रियः। अध्याय ६ – श्लोक १.

जो कर्म फल में आश्रय या अपेक्षा  न कर के कर्म कर्ता है वही संन्यासी ओर् योगि है। अग्निसाद्धय यग्यादि कर्मों का त्यागी और अग्निसाद्ध्य पूर्तादि कर्मो का त्यागी सन्यासि या योगि नही है। कर्म त्याग को कष्टप्रद जान कर उपयुक्त अवस्था से पैहले ही लोग कर्म त्याग कर लेते हैं

जो फल कि अपेक्षा के बिना कार्य कर्त है वही योगि य सन्यासी है। मै अग्नि नही छूता और कोइ कर्म नहि कर्ता ऐसा करने वाला योगि य सन्यासी नही होता। जब तक शरीर है कर्म त्याग नही हो सकता। मनुष्य दो प्रकार के कर्म कर्ता है। एक अपने लिये एक् औरों के लिये। अपने लिये कर्म करना स्वार्थ है और् दूसरों के लिये कर्म कर्न निःस्वार्थ भाव है।

कर्म कर्ता आस्तिक तथा नास्तिक दो प्रकार के होते हैं। जो शुद्ध भाव के हैं परन्तु भगवान में विश्वास नही करते वे केवल लोक हित के लिये कार्य कर्ते हैं। परन्तु जो अस्तिक हैं वो मैं लोकहित के लिये काम कर रहा हूं, वे इस् भाव से नहीं करते। वे मात्र भगवान की प्रीती के लिये ही कर्म करते हैं इस लिये उनका लक्ष्य स्वयं भगवान ही बन जाते हैं। चित के अन्तर्मुखि हुए बिना भगवान की प्रीती के लिये कर्म करना सहज नहीं होता। मन की भोगवासना जब तक शान्त ना हो तब तक भगवत चरण में समर्पण नही हो सकता। जो कर्म भगवत चरण में समर्पित होगा वही निष्काम होगा।

मन के चाञ्चल्य को मिटाने के लिये पैहले क्रिया के परम् अवस्था में पहुंचना अनिवार्य है, वहीं समझ में आता है कि कर्म मेरे नहीं हैं। मिथ्याचार से (मैं सन्यासी हूं इस लिये कर्म नहीं करूंगा) सत्य रूपी इश्वर ओर् भगवन नही मिल् सकते।

सन्यासी लोग त्यागी होते हैं, योगी लोग कर्मी होते हैं। त्याग का चरम फल मोक्ष एवम् शान्ती है। क्रियादि साधना का फल भी वासना विरहित हो कर मोक्ष प्राप्त कर्ता है। सर्वत्याग के बिना कोइ सन्यासी नही बन सकता, योगभ्यास द्वारा चित का विक्षेप शून्य हुए बिना कोई योगी नही बन् सकता। जब कर्म किये बिना कोई रह नही सकता तो कर्म तो कर्ना ही पडेगा, उसे कर्तव्य समझ कर करना पडेगा। इस प्रकार जो कर्म करते हैं वो सन्यासी भी हैं, योगी भी हैं ओर कर्मी भी हैं। कुण्डलिणि साधन रत साधक को भी कर्म फल स्पर्श नही कर सकता तथा इसका अन्तिम फल सर्वात्म भाव ही है। क्रिया करते करते साधक उसके नशे में देह को भूल जाता है, जगत को भूल जाता है, इन्द्रियां व्यापार शून्य हो जाती हैं, वे स्वभाव वश अपना अपना कार्य करती रहती हैं। ऐसी स्थिती में भी उसको कर्म फल आश्रित नहीं कर् सकता। तभी उसको सन्यासी व योगी कहा जा सक्ता है। जो सर्व सङ्कल्प शून्य है वही वस्तुतः योगी ओर् सन्यासी है, वास्त्विक वेदोक्त सन्यास इस युग में अत्यन्त कठिन है।…….श्री श्यमाचरण लहिडि श्री मद्भागवत-गीता। Om! ......................Shaktanand.

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